स्वर्ग और नरक
एक युवा सैनिक ने धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह जानना चाहता था कि स्वर्ग और नरक में क्या अंतर है? उसने एक संत से पूछा, ‘बताएं कि क्या स्वर्ग और नरक वास्तव में होते हैं या ये सिर्फ कल्पना हैं?’ संत ने उसे अच्छी तरह देखा और पूछा, ‘युवक, तुम्हारा पेशा क्या है?’
सैनिक ने अपने पेशे के बारे में बताया तो संत ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, ‘तुम और सैनिक! तुम्हें कौन सैनिक कहेगा। किसने तुम्हारी भर्ती कर दी। देखकर तो तुम कायर लगते हो। भय और आशंका तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रही है।’ यह सुनकर उस सैनिक का खून खौल उठा। उसने बंदूक निकाल ली। संत ने कहा, ‘तुम बंदूक भी रखते हो। बहुत अच्छे! तुम क्या इस खिलौने वाली बंदूक से मुझे डराओगे।
इस बंदूक से तो बच्चा भी नहीं डरेगा।’ यह सुनकर सैनिक अपना आपा खो बैठा, उसने झट से बंदूक का घोड़ा दबाने के लिए हाथ बढ़ाया तो संत ने कहा, ‘लो, बस यही है नरक का द्वार।’ संत की बात का मर्म समझते ही युवक की आंखें खुल गई और अपने किए पर वह ग्लानि से भर गया। वह संत के चरणों में गिर पड़ा। चरणों में गिरते ही संत ने कहा, ‘लो, स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग एवं नरक, आनंद एवं दु:ख ही वह स्थिति है जो हम शांत रहकर या क्रोध करके उत्पन्न करते हैं। जिस क्षण व्यक्ति को क्रोध आता है उसका संपूर्ण अस्तित्व गहरी अशांति को प्राप्त हो जाता है। यह प्रत्यक्ष नरक के समान दुखदायी होता है। खुद की शांति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं जब हम इस जिम्मेदारी को उठाते हैं, स्वर्ग का निर्माण कर रहे होते हैं। संसार हमारी ही सृष्टि है।’
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