एक सुलगती आग मन में
एक सुलगती सी आग
है अंदर कहीं
हर पाँव भारी है
उठते नहीं उठता
और उठता है तो
नीचे रखना मुश्किल
सब कुछ सुनसान
घना अँधेरा
रह रह कर
दूर चमकती बिजली
फिर गड़गड़ाहट
तभी एक किलकारी
गूंजी
माँ की गोद से
मचलता है इक बच्चा
मेरे पास आने के लिए
छटपटाता है
और मैं मुस्करा पड़ती हूँ
अचानक
खिड़की के शीशे
को रगड़ कर
बाहर
देखती हूँ
सब
कुच्छ वैसा ही तो है
जैसे होना चाहिए था
– नीना बधवार ९-४-२०१४
Short URL: https://indiandownunder.com.au/?p=3308