मेरा कमरा – एक कबाड़खाना
संतराम बजाज
“यह कमरा है या कबाड़खाना? लाओ ठीक कर दूं”, मेरी स्वर्गीय धर्म-पत्नी अक्सर मेरे स्टडी रूम को देख कहा करती थीं और मेरा रूखा सा जवाब होता था,“हाथ मत लगाना मेरी चीज़ों को, इस में बहुत जरूरी कागज़ात हैं| मेरे पिछले कई महीनों की कमाई है अर्थात मेरे लिखे लेख हैं”
“क्या ख़ाक लिखा है, कौन पढ़ता है आज कल? किस के पास फ़ालतू समय है कि कम्प्यूटर और मोबाइल छोड़, तुम्हारे लेख पढ़े |”
कल जब मैं ने अपने कमरे की हालत देखी तो अचानक उन की आवाज़ कानों में गूंजती सी लगी| हालत देखने वाली थी| टेबल के ऊपर, टेबल के नीचे, दीवारों के साथ, कुर्सी के नीचे और दरवाजे के सामने, जिधर नज़र पड़ी, किताबों और कागजों के पहाड़ दिखाई पड़े और साथ में कुछ पैन, कुछ मूंगफली के छिलके और चाय के एक दो आधे खाली कप| एक कोने में पुराना रेडियो और उस का डिब्बा, कुछ CD और पुराने कैसेट|
वैसे इस मामले में मैं अकेला ही नहीं हूँ, बहुत सारे लोगों को यह ‘बीमारी’ है| चीज़ें खरीदते रहते हैं, इकठी होती रहती हैं – पुरानी निकालते नहीं, नई आती रहती हैं – और फिर समय के साथ साथ उन की कुछ आदत सी बन जाती है|
और फिर कमरे के अंदर ही इधर उधर जगह बनती रहती है |
अंग्रेज़ी भाषा में ऐसे लोगों को ‘clutterers’ कहते हैं|
भारत के प्रधान मंत्री मोदी जी ने जब सारे भारत में सफाई अभियान चलाया, सो हम ने भी निर्णय लिया कि सफाई होनी चाहिए इस कमरे की और वह भी आज ही | (“चल यार झाड़ू मार!”)
फ़ैसला बहुत जरूरी था कि क्या रखा जाये और क्या बाहर निकाला जाये| हम ने कहीं पढ़ा था कि जो चीज़ आप ने पूरा साल प्रयोग नहीं की है, उसे निकाल दो| फिर कुछ चीज़ें दूसरों के काम आ सकती हैं, तो उन्हें बेच सकते हैं या किसी को दे सकते हैं जैसे Smith Family| कुछ वस्तुएँ भविष्य में काम आ सकती हैं, इसलिए किसी दूसरे कमरे में रख सकते हैं|
ऐसा प्लैन बना हम ने चार खाली बक्से लिए, एक पर ‘रखो ’, दूसरे पर ‘फेंको’, तीसरे पर ‘बेचो/दान’ और चौथे पर ‘पुन: यानी Recycle’ लिख दिया|
श्रीगणेश तो अच्छा हुआ|
परन्तु जब छांटी शुरू की तो दिल पर पत्थर रखने वाली बात हो गई|
उस पुराने रेडियो से तो हमारा जन्मों का न सही वर्षों का नाता था, अब भला कैसे तोड़ दें, भले ही हम इसे सुन नहीं रहे थे परन्तु उस में तो बोलने की क्षमता अभी भी है और तो और, उस के साथ उस का डिब्बा भी रखा हुआ था, जिस में उस के गारंटी पेपर भी, जिसे समाप्त हुए सालों बीत गये हैं| आखिर दुखी दिल से हम ने ‘बेचो/ दान’ पेटी में डाल दिया|
फिर सामने दिखा एक बड़ा सा पैक्ट, जो फ़िल्मी गानों के पुराने ७० मम रिकार्ड (तवे) थे | अब इन को भी कोई नहीं सुनता, लेकिन इन की सेंटीमेंटल वेल्यु तो बहुत है, इसलिए मन इन्हें फेंकने को नहीं माना और इन्हें ‘रखो’ में स्थान दिया गया|
काफ़ी पेपर, मेगजीन, अखबार आदि हम ने ‘recycle’ वाले बौक्स में डालने शुरू किये तो ध्यान आया कि कुछ पेपर तो बड़े confidential से हैं, जैसे credit card, bank statement – जो यदि किसी के हाथ लग गये तो भारी समस्या हो जायेगी| कोई भी उन की सहायता से हमारे खाते से पैसे निकाल सकता है या फिर हमारे कार्ड को इस्तेमाल कर सकता है| उन्हें तो ‘श्रेड’ करना पड़ेगा| सो एक पांचवीं पेटी ‘सोचो’ नाम की लेनी पड़ी| |
एक एक चीज़ को उठाते, ‘फेंको, न फेंको’ की उलझन | काफ़ी वस्तुओं से कुछ ऐसा लगाव सा बना हुआ था कि फेंकने को जी नहीं मानता था, जैसे पुराने ‘बर्थडे’ कार्ड और शादियों के न्योते – वे न्योते जिन को भेजने वाले कई बच्चों के माँ बाप बन चुके हैं, या उन का तलाक हो चुका है – ऐसे ही कुछ ऐसे गारंटी पेपर जिन पर खरीदी हुई वस्तुएँ पहले ही खत्म हो चुकीं हैं या फेंकी जा चुकी हैं|
एक और समस्या आई पुराने कलेंडरों की — मेरे पास एक १९९७ का ‘Fevicol’ वालों का केलेंडर है, क्या करें? आप कहेंगे कि मेरा ‘फेवीकोल’ के साथ ऐसा क्या रिश्ता कि फेंकते नहीं बनता? बात यह है कि केलेंडर तो कई जगह से फट भी चुका है परन्तु उस के ऊपर गणेश जी की तस्वीर है, कचरे की पेटी में तो डाला नही जा सकता| जलप्रवाह करने पर उसे pollution माना जायेगा| समस्या बनी हुई है| (लेकिन एक बात मैं ने नोट की है कि यह १९९७ का केलेंडर और २०१४ के केलेंडर की तारीखें, दिन बिल्कुल एक हैं| इसलिए इस साल तो इसे रखना ही होगा|)
Recycling वाला बक्सा खूब भर गया | वैसे यह बात अब सब लोगों और सरकारों की भी समझ में आने लगी है कि recycling से सब को ही लाभ है, इसलिए हर एक कौंसल इस के लिये पिकअप सर्विस प्रदान करती है|
भारत में सब से ज्यादा recycling होती है और कोई ऐसी वस्तु नहीं, जिस को पुन: प्रयोग में न लाया जाता हो| एक व्यक्ति पुराने प्लास्टिक को सडकें बनाने वाली रोड़ी में मिक्स कर उसे मजबूती से जोड़ने के काम में ला रहा है|
क्या आप को वह रद्दी वाला याद नहीं, जो पुराने अखबार घर घर से खरीदता हैं| वह केवल अखबार ही नहीं खाली बोतलें, टीन के डिब्बे और कोई भी टूटी फूटी वस्तु, उचित दाम देकर ले जाते हैं| (खास तौर पर विदेशी शराब की खाली बोतलों के दाम कुछ ज्यादा ही दे देते हैं|)
ट्रेनों में से पानी की खाली बोतलें, इकठी कर नल के पानी से भर कर मुसाफरों को बेच देने वाले कुछ बेईमान लोग भी इस सिस्टम को गलत तरीके से इस्तेमाल में लाते हैं!
लेकिन यह सच है कि कई गरीब लोगों की तो रोजी रोटी इसी से चलती है |
कई बार बड़ा कष्ट और दुख भी होता है कि छोटे छोटे बच्चे कूड़ा करकट के ढेरों में से प्लास्टिक, पेपर और शीशे आदि की चीज़ें को ढूंढ कर लाते है और कबाड़ियों को बेच कर कुछ पैसे बनाते हैं|
मुझे याद है कि एक कबाड़ी वाला सूखी रोटियां, आटे का छान (आम तौरपर चक्की का आटा बड़ा मोटा पीसा होता था और रोटी बनाते समय औरतें उसे बारीक छलनी में छान कर, वह छिलका इस्तेमाल में नहीं लाती थीं – जिसे आज कल fibre कहा जाता है – वही छान ) खरीदा करता था, वह उसे पीस कर मुर्गियों के लिये फीड बना कर बेचता था|
पुराने कपड़े भी फेंके नहीं जाते थे, परिवार में ही छोटे बच्चों को दे दिए जाते थे, या फिर पुराने कपड़ों की खरीदार बर्तन वाली को – पुराने कपड़ों के बदले में नए बर्तन!
आजकल तो यह पुराने कपड़ों को रिसाईकल करना बड़ा बिज़नेस बन गया है |
विदेशों से बहुत से कपड़े मंगवा कर, कुछ तो ‘सेकंड हैंड मार्केटों में बेच देते हैं और जो बिल्कुल बेकार हों उनसे कम्बल आदि बना लिये जाते हैं |
रिसाएक्लिंग का व्यापार करने वाले थोक के कबाड़ी तो लाखों करोड़ों में खेलते हैं| जैसे उन के हाथ ‘अल्लादीन का चिराग’ लग गया हो|
आजकल तो कम्प्यूटरों, मोबाइल फोन आदि की ई-कबाड़ मार्किट भी लगती है|
है ना कितना अच्छा recycling सिस्टम !
हम कहाँ से कहाँ पहुंच गये!
मैं तो अपने कमरे की सफाई कर रहा था |
कुछ सामान इधर से उधर, कुछ की जगह बदली कुछ को Smith family, salvation army के लिया रखा और बहुत सा recycling के डिब्बे में|
पूरा दिन बीत गया, रात खाने का समय भी हो गया | काफ़ी थकावट हो गई परन्तु खुशी इस बात की थी कि कमरा अब कबाड़खाना नहीं लग रहा था| ऐसे महसूस हो रहा था जैसे कोई जंग जीत ली हो |
ड्रिंक बनाई, भोजन किया और बिस्तर में | पता ही नहीं चला कब नींद आई|
अचानक हड़बड़ा कर उठा | एक लिफाफा, जिस में पासपोर्ट और दूसरे जरूरी पेपर थे, कहीं दिखाई नहीं दिया, कहाँ रखा था? याद नहीं आ रहा था|
टेबल की ड्रार में, साईड की छोटी केब्निट में.. या फिर कचरा पेटी में?
हे भगवान ! बिस्तर से छलांग लगा पहुंचे स्टडी रूम में|
थोड़ी देर की तलाश में कुछ पता नहीं चला, चला तो बस इतना कि वह लिफाफा कमरे में नहीं है| ‘पसीने छूटना’, किसे कहते हैं, कोई मुझ से पूछे|
अब एक ही जगह रह गई थी, जहां उस की संभावना थी, और आप जान ही गये होंगे, कि वह जगह थी कौंसल का ‘recycling bin’, जो मैं ने रात को घर के बाहर, recycling truck के लिये सुबह उठाने को रखा था|
अब देरी की गुंजाईश नहीं थी, ट्रक वाले, किसी समय भी आ सकते थे और फिर वह पेपर मेरी पहुंच से बाहर हो जायेंगे|
हिम्मत कर के दरवाजा खोला, पड़ोसी के कुत्ते ने ज़ोर ज़ोर से भौंकना शरू कर दिया|
इस समय यदि शेर भी आ जाता तो मैं रुकने वाला नहीं था| लपक कर बिन को अपने कब्जे में किया| शुक्र है, अभी सब कुछ सलामत था|
अब सड़क के किनारे, तमाशा न बन जाये, इस लिये बिन को गेराज के अंदर ले आया और उल्टा कर उस लिफ़ाफ़े की तलाश शुरू कर दी| चारों ओर पेपर ही पेपर बिखर गये|
इतना शोर शराबा सुन मेरी बेटी की नींद भी खुल गई और उस ने जब मुझे इस हालत में देखा तो घबरा गई कि शायद मेरी दिमागी हालत ठीक नहीं है|
“क्या हुआ डैड ? आर यू आल राईट” उस ने उत्सुकता से पूछा|
“नाट रीयली” और मैं ने उसे अपने पासपोर्ट वाले लिफ़ाफ़े के बारे में बताया तो वह हंसने लगी|
“मेरी जान सूख रही है और तुम इसे मज़ाक समझ रही हो”
“वह लिफाफा तो आप ने मुझे पिछले हफ्ते दिया था कि उसे सेफ जगह रख दूं, वह तो मेरे कमरे में है”|
अब सिवाए अपना सिर पीटने के मैं क्या करता|
शायद दिमाग में भी कबाड़ घुस गया है|
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