सोचों का समुन्दर
मेरी सोचों का समुन्दर आज अशांत है
सोचें ऊंची लहरों की तरह उठती हैं
फिर बैठती हैं
क्या बात है जो कि
अंदर ही अंदर खाए जा रही है
क्या ये जीवन से लड़ाई है
या फिर मौत से
जो पल पल
अपने अंदर हमें समा रही है
या फिर यह लड़ाई समझा रही है
कि हर पल को जियो, उसमे रहो
न कि मरो
क्योंकि मरने का इक दिन तो पक्का है
उसमे कोई शक नहीं
आज इस जीने में शक है
क्या जीवन ऐसे जिया जाता है
जैसा कि दुनिया चाहती है
या फिर वैसा
जैसे कि दिल कहता है
बस यही परेशानी है
कुछ ऐसे सवाल
जिन के उत्तर ढूंढे नहीं मिल रहे
अगर हम मौत से डरते हैं
तो मौत किससे डरती है
अगर हम मौत के मुंह में जा रहे हैं हर पल
तो मौत किसके मुंह में जा रही है
क्या ख़ुशी खाने खेलने और मज़ा करने में है
जब कि दुनिया के कई लोग
भूखे हैं
कौन सी ख़ुशी
कैसी ख़ुशी
कोई बताये तो सही
कोई समझाए तो सही
आज सब कुछ गलत क्यों है
दुनिया की दिशा क्यों बदल गयी
झूठ क्यों सच हो गया
और सच कहाँ छुप गया
माँ ने बच्चों को क्यों मारा
जिन्होंने बच्चों को भूना
वो पिता भी थे
तो फिर क्यों
धर्म के नाम पर
या फिर देश के नाम पर
लड़ाई क्यों
क्यों नहीं दे देते हम कुछ जगह
साथ ले जाने से तो रहे
क्यों बलात्कार
औरत का
बच्चों का
क्या
करने वाले
किसी के भाई बाप नहीं है क्या
कहाँ गलती हो गयी
कैसे सब बर्बादी की ओर
ये संसार चला गया
क्यों हम सुन्न से बैठे हैं
ये सब
देख कर
सुन कर
अब वो खाने में मज़ा नहीं
खेलने में ख़ुशी नहीं
सजने में सुंदरता नहीं
कुछ पाने का संतोष नहीं
सब कुछ खाली खाली
बस ऐसी ही सोचों का
आज उबाल निकल रहा है
ये सोचों का समुन्दर
एक सुनामी
लाने को
उतारू है
नीना बधवार २९. १२. २०१४
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