बोतल वाले बाबा …..
संतराम बजाज
राम दास अपने बेटे और बहू को लेकर साथ वाले गाँव , इस विशवास के साथ पहुँचा कि वहाँ के आश्रम से बाबा का प्रसाद और आशीर्वाद उसे शीघ्र दादा बना देगा|
बाबा से भेंट के लिये खड़ी कतार में से एक सेवादार उसे बुला अंदर ले गया|
कितना भाग्यशाली है वह कि बाबा ने उसे स्वयं बुला भेजा !
“तुम राम दास हो ?” बाबा ने पूछा
“जी”- राम दास चौंका
“यह तुम्हारे माथे पर घाव का निशान कैसे लगा और किस ने दिया, याद है ?”
“जी, बचपन में फत्ते ने”
“कौन फत्ता?”
“था स्कूल का साथी, जिस की नाक हर समय बहा करती थी और निक्कर नीचे लटकी रहती थी, लड़ाका बहुत था, पर गाता अच्छा था|”
“अब मिले, तो पहचान लोगे?”
“भला उसे कैसे भूल सकता हूँ|”
“तो फिर मुझे क्यों नहीं पहचाना? मैं ही वह फत्ता हूँ ”
और राम दास की आँखें फटी की फटी रह गईं|
“फत्ता और तुम ? मेरा मतलब आप?”
“हाँ भई, और अब आप कहने की जरूरत नहीं है, मैं ही वह फत्ता हूँ, जिस का तुम मज़ाक उड़ाया करते थे”| अब रामदास को बड़ी झेंप लग रही थी|
“पर यह बोतल वाले बाबा?”
“मैं ही हूँ , मुझे यह नाम कैसे मिला , इस के पीछे एक कहानी है …..
….यह तो तुम जानते ही हो,गाँव में कोई काम काज तो मैं करता नहीं था, लड़ाई, मारकुटाई से बापू तंग आ चुका था ,इस लिये एक दिन घर से भाग आया था| इधर उधर धक्के खाने के बाद इस गाँव में बाबा की कुटिया में शरण ली|
मेरे जैसे कई लोग यहाँ डेरा डाल कर बैठे रहते थे| बाबा की चिलम भर देते और बाबा कभी कभी हमें भी ‘सूटा’ लगाने देता था| एक नशा सा छा जाता था, बड़ा आनंद आता था|
खाने पीनी की कोई कमी नहीं थी , बाबा के कई भक्त थे और उनसे आशीर्वाद लेने जब आते थे तो खाली हाथ नहीं आते थे| काफ़ी लोग आटे, चावल के थैले और दूध की बाल्टियाँ दे जाते थे जो बाबा हमारे जैसों को दे दिया करते थे |
इस बीच में मेरी दोस्ती बस अड्डे पर शराब के ठेकेदार से हो गई| अब बाबा के कुछ भक्त कुटिया से लौटते समय ठेके पर एक छोटा सा ‘स्टॉप ओवर’ कर लेते थे| कभी कभी सरकारी आदेश पर जब ठेका बन्द होता तो भक्तों को परेशानी उठाने पड़ती तो मैं इस मामले में उन की सहायता कर दिया करता था और ठेकेदार के घर से, पिछले दरवाजे से बोतल ले आता था| मैं इस में कोई बुराई नहीं समझता था बल्कि ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी कर देता था|
बदले में ठेकेदार मेरी कुछ ‘सेवा’ कर दिया करता था|
बाबा के मेरी तरह के और भी कई चेले बने हुए थे जो आने वाले लोगों की सेवा करते रहते थे| लोग हमें भी ‘छोटे बाबा’, ‘लम्बे बाबा’, ‘गोरे बाबा’ आदि नामों से बुलाते थे| अब ऐसे में ही मुझे ‘बोतल वाले बाबा’ का नाम मिल गया | शुरू शरू में तो मुझे डर सा लगा कि बाबा नाराज़ हो जायेंगे परन्तु बाबा के कुछ न कहने पर मैं अपने काम में लगा रहा|
बाबा अपनी चिलम लगाए और ‘धूनी’ रमाये अक्सर मस्त रहते थे|
बाबा बहुत भले और सच्चे व्यक्ति थे | वे बोलते बहुत कम थे, इसलिए अक्सर लोग उन्हें ‘मौनी बाबा’ कहते थे|
कुटिया पर आनेवाले लोगों में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें उन के घर वाले उन की शराब पीने की आदत को छुड़ाने के लिये ही बाबा के पास लाते थे| पर यह काम इतना आसान नहीं होता था| मुझ से उन की यह तकलीफ देखी नहीं जाती थी, इसलिए मैं अक्सर चाय की केतली में शराब डाल कर उस व्यक्ति को चुपके से दे देता था, जिस के लिये वह बड़ा आभार मानते थे| शराब की बू न आये इस के लिये मैं उस में एक दो मसाले,जैसे छोटी इलायची डाल दिया करता था|
एक बार तो हद हो गई, मैं केतली भर कर जूंही मुड़ा तो एक व्यक्ति से टकराने पर वह केतली मेरे हाथ से छूट ,साथ रखी दूध की बाल्टी में गिर गई|
वही दूध उस दिन के ‘चरणामृत प्रसाद’ में इस्तेमाल होना था , सो हो गया| काफ़ी लोगों ने उस दिन के प्रसाद की तारीफ़ की|
लेकिन यह बात बाबा को अच्छी नहीं लगी| उन्होंने मुझे बुला कर बहुत झाड़ पिलाई कि ऐसे धंधे कुटिया के अंदर वे सहन नहीं करेंगे और वह इसे माफ़ नहीं कर सकते |
मैं ने बाबा से क्षमा मांग कर यह प्रण किया कि अब कभी बोतल को हाथ नहीं लगाऊंगा | और ऐसा ही किया मैंने – मैं ने बोतल तो छोड़ दी पर ‘बोतल वाले बाबा’ का नाम चिपका ही रहा|
मैं ने जी तोड़ कर कुटिया पर आने वाले लोगों की सेवा की और बाबा को भी किसी शिकायत का अवसर नहीं दिया|
बाबा के भक्तों में बढ़ोतरी होने के कारण उन का नाम चमकने लगा था और दूर दूर से लोग बाबा के दर्शनों के लिये आने लगे थे|
जीवन ऐसे ही बीत रहा था…..कि…
बाबा एक दिन अचानक बीमार हुए और समाधि ले गये|
सब की नजरें मेरी ओर थीं क्योंकि बाबा के चेलों में ‘सीनयर’ मैं ही था |
मैं ने अपनी नई ज़िम्मेदारी को बड़ी ‘सीर्यस्ली’ लिया और सच्चे मन से कुटिया में आने वालों की सेवा करने लगा|
इस नए ‘बोतल वाला बाबा’ की ख्याति फैलने लगी|
यहाँ तक कि कुटिया छोटी पड़ने लगी थी| कुछ भक्तों की सहायता से, साथ वाली जमीन पर एक चारदीवारी खड़ी कर कुटिया को एक डेरा बना दिया| नाम भी रख दिया गया
‘अतुल्य आश्रम’|
आश्रम के अंदर अब प्रीत दिन भंडारे (लंगर) की व्यवस्था कर दी गई| प्रवचन और कीर्तन होने लगे|
तुम तो जानते ही हो,स्कूल में सुबह प्रार्थना मैं ही ‘लीड’ किया करता था, मेरे भजनों से भक्त बड़े प्रभावित होने लगे|
और हर तरह की सुविधा जैसे एरकंडीशनर, नहाने के नए बाथरूम आदि बनने लगे –
ये सब भक्तों के दान से ही हो रहा था|
पैसा भी खूब आने लगा, कुछ राजनीतिज्ञ भी डेरे के चक्कर लगाने लगे | एक मंत्री जी की धर्मपत्नी दर्शन के लिये आईं तो ट्रक भरा हुआ रसद-पानी दे गईं |
बेशक हम बहुत बहुत बड़े ज्ञानी नहीं हैं और वेदों का प्रचार करने के काबिल नहीं हैं ,परन्तु अपने स्तर पर हम भी कुछ तो सेवा कर ही रहे हैं, ख़ास तौर पर गरीब और असहाय वर्ग के लोगों की, जिन्हें हर जगह से सिवाये दुत्कार के कुछ नहीं मिलता| चारों ओर उन्हें अन्धेरा ही अन्धेरा दिखाई पड़ता है, यहाँ आ कर उन्हें थोड़ी शान्ति मिलती है|
लोगों में अंधविस्वास बहुत होता है, जो कहो मान जाते हैं,कोई सवाल जवाब नहीं करते|
बड़े बड़े धर्मस्थानों पर क्या हो रहा है, तुम भी जानते हो? भगवान के दर्शन के लिये भी अलग अलग दरवाज़े हैं, ’वी-आई-पी’ और पैसे वालों को इंतज़ार नहीं करना पड़ता|
रोज़ाना करोड़ों की ‘भेंट’ चढ़ती है| इतना पैसा कहाँ जाता है ?
अस्पताल या कोई दूसरी सुविधाओं के लिये खर्च करते हैं क्या ? हाँ, जवाहरात के बड़े बड़े हार भगवान की मूर्तियों को पहना उन्हें सोने के सिंहासनों पर बिठा देते हैं|
यह एक धर्म के लोग ही नहीं, सब का यही हाल है| कुछ लोगों के लिये तो धर्म एक धंदा बन कर रह गया है| कई बाबे टीवी के माध्यम से लोगों को उल्लू बना रहे हैं |यूँ कह सकते हैं कि ये भगवान को ही बेच रहे हैं |पर जब तक खरीदने वाले होंगे, भगवान बिकते रहेंगे|
और यह भी सच है कि कुछ डेरों में अनैतिक कार्य होने के कारण शेष सब भी शक के घेरे में आ रहे हैं| जैसे एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है, यहाँ तो मगरमच्छ ही गंदे निकल रहे हैं तो हमारे जैसी मछलियाँ भला क्या कर सकती हैं| हम तो मुफ़्त में इन के कारनामों की वजह से फंसे पड़े हैं|
उन के अवैध धंधे, अश्लील हरकतें, दुराचारी समर्थक, हम सब के लिये एक लांछन हैं |
कोई कृष्ण लीला करता है, कोई किरपा का झांसा देता है, कोई हवा में से सोने की चेन पैदा करता है तो कोई करामाती खीर खिलाता है|
नाम नहीं लूंगा पर तुम्हें मालूम ही है कि ये कौन हैं और अब कहाँ हैं|
तुम हैरान जरूर हो रहे होगे कि मैं अपने ही लोगों के बारे में ऐसी बातें क्यों कर रहा हूँ|
पर सच में इन्हें अपना कहते हुए शरम आती है|
और यह बात भी सही है कि सारे आश्रम तो बुरे नहीं हैं| आश्रम तो महात्मा गांधी का भी था और अरबिंदो घोष का भी- स्वामी रामकृष्ण का वेदान्त आश्रम आदि कुछ नाम लिये जा सकते हैं|
मैं कोई सफाई नहीं दे रहा, पर हम कोई ‘गैर कानूनी’ काम नहीं कर रहे यहाँ|
हम न भगवान होने का दावा करते हैं और न ही हम लोगों की भावनाओं के साथ खेलते हैं|
मुझे तो हालात ने बाबा बना दिया, फिर भी मैं अपनी सामर्थ के अनुसार समाज की सेवा करने की कोशिश करता हूँ| आजकल के तेज़ी से बदलते समाज में जहां पैसा ही प्रधान है, परिवार टूट रहे हैं, बड़े बूढ़ों की देखभाल करने वाले कोई नहीं, ऐसे में हमारे जैसे छोटे छोटे स्थान बहुत आवश्यक होते जा रहे हैं, बस डर इस बात का है कि कुछ गलत तरह के लोगों की वजह से यह रास्ता भी बन्द न हो जाये|”
राम दास मुगध सा बाबा की बातें सुन रहा था, उसे एक मिंट के लिये भी यह नहीं लगा कि उस फत्ते के सामने बैठा है, जो उस के बचपन का साथी था| उस के दिल में बाबा के प्रति बड़े अच्छे भाव बन रहे थे |
बाबा एक दम रुका ,फिर बोला “लो जब से तुम आये हो अपनी ही कहे जा रहा हूँ, तुम अपनी सुनाओ गाँव में सब कैसा है?”|
राम दास जैसे नींद से जागा|
‘’सब ठीक है, बल्कि काफ़ी कुछ बदल गया है | किसी भले आदमी ने हमारे गाँव में एक छोटी सी फ्री डिस्पेंसरी खुलवा दी और साथ में १० क्लास तक का स्कूल भी बनवा दिया ”
“जानते हो वह भला आदमी कौन था?”
“नहीं, कोई दिल्ली से आया था”|
“वह मैं ही था, अपने लोगों के लिये बिना बताए, कुछ करने में बड़ा आंनद मिला”
राम दास भावुक हो उठा कि क्या वास्तव में ‘बोतल वाला बाबा’- ही उस का फत्ता है, जिसे लड़ाई झगड़े के सिवा कुछ और सूझता ही नहीं था|
अपने आप ही उस का मस्तक बाबा के आगे झुक गया|
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