हकीम राधे श्याम …
संतराम बजाज
हकीम राधे श्याम की दूकान हमारी गली की नुक्कड़ पर थी| दूकान के बाहर एक टूटा हुआ बैंच हमेशा पड़ा रहता था, जिस पर रोगी लोग बैठ कर खांसते रहते थे|साथ में एक चारपाई भी थी, जिस पर कभी २ कोई मरीज़ लेटा होता था अन्यथा उस पर समाचार पत्र पढने वाले लोग बैठे पाए जाते थे| हकीम जी की दूकान एक तरह से पब्लिक लायब्रेरी का काम भी करती थी| समाचार पत्र भी हकीम जी ही खरीदते थे|
दूकान के बाहर एक पुराना सा बोर्ड लटका रहता था, जिस पर लिखा था, “खानदानी हकीम राधे श्याम, सनद-याफ़्ता,जेहलम वाले” और नीचे की लाइन पर, “यहाँ हर बीमारी का शर्तिया इलाज होता है|”
हकीम जी अन्दर लकड़ी की कुर्सी पर, जिस पर एक फटी हुई गद्दी पड़ी होती थी, बैठते थे| उन के आगे एक मेज़ थी जिस की भी कुर्सी जैसी ही हालत थी| उस पर एक मटियाले रंग का मेज़पोश, जिस पर एक फूलदान रखा हुआ था| कुर्सी के पीछे एक अलमारी थी, जिस में तीन चार बोतलों में रंगदार मिक्सचर और कुछ डिब्बों में कई तरह के पाउडर और छोटी छोटी गोलियां थीं|
हकीम जी मरीज़ की नब्ज़ देखने और मुंह खोल ‘आ आ’ करवाने के बाद तीन दिन की दवाई की पुडिया और शीशी में मिक्सचर दे कर खुशक फुल्का (बिना घी के चुपड़ी रोटी), मूंग की दाल के साथ खाने की हदायत करते थे| पैसे बहुत कम लेते थे और कई लोगों से लेते ही नहीं थे|
हकीम राधे श्याम १९४७ में हिन्दुस्तान के बटवारे के बाद पाकिस्तान के जिला जेहलम से आकर यहाँ बस गए थे| उन के ही इलाके से और भी काफी रिफ्यूजी यहाँ आ कर रहने लगे थे| कस्बे में कोई डॉक्टर या हकीम नहीं था, इसलिए इन लोगों को जैसे भगवान् मिल गये|
हकीम जी पुराने विचारों के थे| रंग सांवला, कद दरमियाना और उमर ४५-५० के लगभग होगी| काफी सीधे साधे, शांत स्वभाव के, रहन सहन भी साधारण लोगों सा, आम तौरपर कुर्ता पाजामा पहने रहते थे, जिस के ऊपर एक जैकट होती थी| आँखों पर ऐनक लगाते थे जो आँखों पर कम और नाक पर ज़्यादा लटकी रहती थी, जिस से वे हकीम कम और स्कूल मास्टर ज़्यादा लगते थे|
हकीम राधेश्याम माडर्न दवाईयों पर कुछ ज़्यादा विश्वास नहीं रखते थे| काफी बीमारियों का इलाज तो वे ‘बजरंग चूरण’, ‘नैन-सुख सुरमा’ और ‘तोप छाप काली मरहम’ से ही कर देते थे या फिर ‘बनफशा’ और ‘जोशांदे’ से| आयुर्वेदिक और यूनानी तरीकों पर पूर्ण विश्वास था|
हकीम जी दांतों और आँखों के विशेषज्ञ भी माने जाते थे| कई दांत तो वे केवल हाथ की दो उँगलियों से ही निकाल देते थे|
हकीम राधे श्याम की एक ‘स्पेशिलिटी’ और थी| वे ‘गुप्त रोगों’ का भी शर्तिया इलाज करते थे| कई नौजवान लोग उन को अन्धेरा होने के बाद ही आ कर मिलते थे|
कस्बे वाले उन की बहुत इज्ज़त करते थे – हाँ एक पुजारी जी को छोड़ कर – पुजारी जी की हकीम जी से नहीं पटती थी, क्योंकि पुजारी जी के बहुत से ग्राहक अर्थात वे लोग जो अपना इलाज झाड़-फूंक से कराते थे – अब हकीम जी के पास जाने लगे थे| इसलिए पुजारी जी हकीम जी के बारे में ऊट-पटांग बातें करते रहते थे | “यह नक़ली हकीम है, यह तो बसों और ट्रेनों में चूरण और सुरमा बेचा करता था | कोई और ढंग का काम नहीं मिला तो हकीम बन बैठा| पाकिस्तान से आया है कहता है सब प्रमाण-पत्र वहीं रह गए | अब भला सच्चाई का पता कैसे लगे?”
परन्तु एक बार तो पुजारी जी भी बहुत खुश हो गए क्योंकि उन का धंधा, हकीम जी की ‘सहायता’ से अच्छा चल पड़ा| हुआ यूं किइलाके में हैजा फ़ैल गया, लोग मरने लगे| हकीम जी कुछ नहीं कर पा रहे थे|
पुजारी जी इस ताक में रहने लगे कि हकीम जी किस घर में रोगी को देखने गये हैं| जूँही उस घर से बाहर निकलते, पंडित जी अंदर पहुँच जाते और जाते ही पूछते, “क्या हकीम राधे श्याम यहाँ आया था?”
“जी हाँ”
“बस, रोगी को चारपाई से नीचे उतारिये और दिए-बाती का प्रबंध कीजिये| चारपाई पर मर गया तो इस की गति नहीं होगी| मैं गीता पाठ करता हूँ – भगवान् इस की आत्मा को शान्ति दे |”
इस से हकीम जी की साख (reputation) को थोड़ा झटका तो लगा, परन्तु हैजा सारे इलाके में फैला था और बड़े बड़े डॉक्टरों के होते हुए भी काफी लोग मृत्यु की गोद में सो गये थे, इसलिए लोग जल्दी इस बात को भूल गए और हकीम जी का काम फिर से नार्मल हो गया |
और उधर हालात ने एक अजीब पलटा खाया| चीन ने भारत पर अचानक आक्रमण कर दिया| देश भर में आपात-काल की स्थिति पैदा हो गई| बच्चे ,बूढ़े और जवान सब ही कुछ न कुछ करना चाहते थे| राइफल चलाने की ट्रेनिंग और फर्स्ट-एड की ट्रेनिंग दी जाने लगी|
हकीम जी भी शहर जाकर ‘इमरजेंसी ट्रेण्ड डॉक्टर’ बन कर लौटे|
आते ही उन्हों ने अपने बोर्ड पर हकीम के साथ डॉक्टर का शब्द भी जोड़ दिया|
काम अच्छा चलने लगा|
एक दिन उनकी दूकान के बाहर काफी भीड़ देखकर, पूछने पर पता चला की हकीम जी का किसी के साथ झगड़ा हो गया और थोड़ी मारा पीटी भी हो गई और बात पुलिस तक जा पहुँची|हकीम जी ऐसा करेंगे, बात मानने वाली नहीं थी|
हुआ यूं कि एक आदमी दांत की बहुत पीड़ा के साथ आया, इसलिए हकीम जी ने उसे तरुंत कुर्सी पर बिठा कर जमूर से जोर लगा कर उस का दांत निकाल, उस के हाथ में देते हुए गर्व से कहा,“देखो, कितना आसान काम था| मैं ने दर्द की जड़ ही उखाड़ दी है |”
परन्तु रोगी के मूंह से खूब खून निकल रहा था और वह पीड़ा और गुस्से से लाल पीला हो रहा था. “सत्यानाश हो तेरा ! तू ने तो मेरा दूसरा अच्छे वाला दांत निकाल दिया है|”
और बात कुछ बिगड़ गई| पुलिस को आना पड़ा |
पुलिस ने राजीनामा करवा दिया |
शाम को जब हकीम जी पुलिस थाने से वापस आये तो देखा कि किसी मनचले ने उन के नाम के बोर्ड में कुछ तबदीली कर दी थी |
‘सनद-याफ़्ता जेहलम वाले’ की जगह ‘सज़ा-याफ़्ता जेल-वाले’ बना दिया था|
बेचारे हकीम राधे श्याम चुप चाप देखते ही रह गए|
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