यादों का खून
संतराम बजाज
मुद्दत से दिल में एक अरमान लिए फिरता था कि अपने जन्मस्थान को देखने जाऊंगा | मुश्किल यह थी कि वह पाकिस्तान में है| १९४७ में जब देश का विभाजन हुआ तो वहां से जान बचा कर निकलना पड़ा| वर्षों बीत गए पर वहां की गलियाँ, वहां के घर, वहां के खेतऔर वहां के साथी नहीं भूले| उन का सुन्दर सा सपना दिलोदिमाग से हटता ही नहीं|
कई बार कुछ हिम्मत की भी तो दोनों देशों के संबंधों में कुछ न कुछ खराबी देख जाने का इरादा कैंसल करते रहे|
लेकिन अब हम कन्फ्युज़ से फिर रहे हैं|
आप पूछेंगे क्यों?
तो आईये, बात करते हैं|
हमारे एक मित्र हैं भाटिया, जिन को हम ने इस इरादे के बारे में बता बता कर उन के कान पका दिए हैं, तंग आकर बोल ही पड़े|
“अच्छा, क्या क्या यादें जुडी हुई हैं आप की उस गाँव के साथ?”
“अरे, क्या बात करते हैं ? यादें ही यादें हैं| भई, पैदा ही वहां हुए, और जब से होश संभाला जिन साथियों के साथ पले- बढ़े, स्कूल गये, गलियों में खेले- अब क्या क्या बताऊँ, सब कुछ तो याद है| कैसे रातों को अँधेरी गलियों में बिना किसी भय के ‘लुका-छिपी’ खेला करते थे| हमारे घर के और प्राईमरी स्कूल के मध्य में एक जौहड़ था, जिस में भैंसे पानी पीतीं और नहाती थीं, और कई लड़के भी उस गंदे पानी में डुबकियां लगाते थे|
क्या नज़ारा होता था|
साथ ही कुछ आम के पेढ थे, गर्मी से बचने के लिए, जिन की छाँव में हम बैठ कर पढ़ा करते थे और थोड़े बहुत आम चुरा कर खा भी लिया करते थे| पकडे जाने पर गाली भी खूब खानी पड़ती थीं|
“अच्छा, वही आम के पेढ जहां वह गाँव की अल्हड युवतियां आकर पींगें झूला करती थीं और उन्हें छेड़ने के लिए कुछ मनचले आ कर उन से ठठा-मज़ाक किया करते थे|”
“हाँ भई, वही| पर हम तो छोटे थे, हमें कुछ लेना देना नहीं था उन से|
अच्छा और बताएं, गाँव में हम डाकिये का काम भी किया करते थे |”
“क्या मतलब, डाकिये का?” भाटिया बोले|
“अरे, लोगों की जो चिट्ठियां आती थीं, वे हमारे स्कूल मास्टर जो पोस्ट मास्टर की ड्यूटी भी निभाते थे, हमे लोगों के घरों में पहुंचाने के लिए दे देते थे| और बहुत से लोग न तो पढ़ सकते और न लिख सकते थे| हमें वे चिट्ठी पढने को कहा करते थे और कभी कभी जवाब भी लिखवाया करते| मैं लिखने पढने में काफी होशियार था|
यह सब उर्दू भाषा में होता था| मुझे याद है, आम तौर पर पोस्ट कार्ड शुरू होता था, ‘बुज़ुर्गवार्म वालिद साहिब, मत्था टेकना के बाद अर्ज़ है कि मैं यहाँ सब खरैयित और आप की खरैयित ईश्वर जी से नेक चाहता हूँ| सूरत एहवाल आंके’ , ..और उस के बाद अपना हाल लिखा होता था, आदि आदि .. और अंत में, बाक़ी सब खेरियत है| पढ़ने सुनने वालों को राम राम, सत श्री अकाल | ख़त का जवाब जल्दी देना| आप का बेटा..,
यादें कितनी सुहावनी हैं, घर से थोड़ी दूर एक गुरदवारा, उस के बाहर एक कुआं और बिलकुल उस के सामने एक मस्जिद- सब एक तस्वीर की तरह अब भी मेरे दिमाग में है|
“और क्या ?”
“और गाँव की वे कच्ची गलियों जहां बारिश होने पर हम यदि गिर जाते तो कीचड़ से लतपत फिर बारिश में नहाने चल पड़ते”|
“मैं तो ऐसी सुंदर यादों को हमेशा सीने से लगा कर रखना चाहूंगा और आप हैं कि उन का खून करना चाहते हैं?”
“खून? क्या कह रहे हैं आप?”
“अरे भई! आप किस सपनों के संसार में जी रहे हैं|कितने वर्ष बीत गए हैं, इस बीच ? आप को अंदाजा भी है कि क्या क्या तब्दीलियाँ आ चुकी हैं| न वे कच्ची गलियाँ ही मिलेगीं और न आम के वे पेड़, जौहड़ की बात ही छोड़ो, वह तो बहुत दूर की बात है | याद है हमारे कालिज में वह मिस ‘इंडिया’- जो नाक पर मखी नहीं बैठने देती थी?”
“हाँ, हाँ उसे कौन भूल सकता है, क्या गज़ब की ख़ूबसूरती! सारा कालिज ही उस का दीवाना था”
“कल एक शॉपिंग माल में दिखाई पडीं| पहचान ही नहीं पाया| उस की ढलती जवानी, टेढ़ी मेढ़ी चाल, उन काली काली जुल्फों की जगह हेयर डाई की परतें देख कर सारा नशा उतर गया| पुरानी यादें चकना चूर हो गईं या यूं कहिये कि यादों का ख़ून हो गया| और तो और ज़ख्मों पर नमक छिडक गई|”
“क्या मतलब?”
“कहने लगी कि आप बड़े कमज़ोर लगते हैं, कालिज में तो आप बड़े स्मार्ट लगा करते थे| हाय, ज़ालिम ने स्मार्ट वाली बात उस समय क्यों नहीं कही,” भाटिया ठंडी सांस भरते हुए बोले|
“ठीक ही तो कहा उस ने| तुम्हारे पीछे भी तो कई लड़कियां पागल हुई फिरती थीं | अब ज़ाहिर है उस का इशारा आप के पिचके हुए गालों की ओर था| आप भी बूढ़े हो गए हैं श्रीमान !”
“सो, भैया जी, मैं तो कहूंगा कि अच्छी तरह से सोच लो और उस पुराने गाँव जाने का इरादा छोड़ दो| वे यादें यादें ही रहें तो अच्छा है| नहीं तो पछताते रहोगे कि क्यों गये | वह सब गायब हो गया होगा, न जौहड़, न भैंसें, और न कच्ची गलियाँ | न ही अब कोई चिठ्ठियाँ ही लिखवाएगा, क्योंकि कौन लिखता है चिट्ठियां आजकल, सब के हाथों में मोबाइल फोन हैं और ‘वाट’स एप पर चैट का ज़माना है| आप क्या सोचते हैं कि दुनिया वहीं की वहीं रुकी हुई है|
“ तुम ने तो मुझे कन्फ्यूज़ कर दिया भाटिया |”
और अब हम वास्तव में सोच रहे हैं कि पुरानी मीठी यादों को यादें ही रहने दें ! इसी में हमारी भलाई है |
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