शुक संदेह
सी. राजागोपालाचारी

“परमात्मा सर्वव्यापी है। लेकिन कुछ लोग उसे विभिन्न मूर्तियों और शिव-लिंगों में बंद करके रखना चाहते हैं। नाना-रुपी मूर्तियां बना कर वे उनकी पूजा करते हैं और अपने को शैव, वैष्णव आदि भिन्न-भिन्न मतावलम्बी बतलाते हैं !” एक कौवे ने अपने पास बैठे तोते से इस प्रकार अपना मत प्रकट किया। कौवा मंदिर के परकोटे पर बैठा हुआ था।

तोते ने कौवे की बात सुनी और कहा, “यदि भगवान् सर्वव्यापी है तो मूर्तियों में भी होगा ही।”
“सुनी हुई बात को रटना शुरू कर दिया न !” कौवे ने तोते को चिढ़ाया।
बेचारा तोता लजा कर वहां से उड़ गया। वह एक गिलहरी के पास जाकर बैठा। उसने कौवे और अपने बीच की बातचीत गिलहरी को सुनाई।
गिलहरी कहने लगी, “कौवा वितंडावादी है। उसकी आदत कुछ-न-कुछ बकते रहने की है। तुम उसकी परवा न करो। किन्तु मेरे मन में भी एक संदेह है। “
“वह क्या?” तोते ने पूछा।
“बताओ ईश्वर एक है या अनेक ?” गिलहरी ने प्रश्न किया।
“परमेश्वर एक ही है। ” तोते ने श्रद्धापूर्वक उत्तर दिया।
“तुम फँस गए। ” गिलहरी ने तोते से कहा।
“देखो, वह बिल्ली मौसी आ रही है। उससे पूछो।” गिलहरी बोली।
तोते ने कहा, “नहीं, बिल्ली से मुझे बहुत डर लगता है।”
“डर और ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा दोनों एक साथ नहीं चल सकते। हिम्मत दिखाओ और बिल्ली से अपने मन का संदेह कहो। ” गिलहरी बोली।
“सुनो, बहिन गिलहरी ! मैं बिल्ली के पास कभी नहीं जाऊँगा। अगर गया तो संदेह के साथ-साथ मैं स्वयं भी मिट जाऊँगा। तुम खुद मुझको समझा सकती हो। गिलहरियों का प्रताप मैंने सुन रखा है। सुना है कि रामचन्द्रजी ने एक गिलहरी की मदद से ही सेतु-बाँध बंधा था। ” तोता बोला।
अपनी जाति की प्रशंसा सुन कर गिलहरी बहुत खुश हुई और कहने लगी, “देखो मूर्तिपूजा में यही दोष है। जितने मंदिर हों, जितनी मूर्तियां हों, उतने ही ईश्वर होंगे। तुम्ही ने स्वयं कहा कि भगवान् एक है। फिर भगवान् अलग-अलग नहीं जायेंगे ? यह एक मामूली हिसाब है। तुम्हारी समझ में यह कैसे नहीं आया ?” गिलहरी ने किंचित परिहास के साथ तोते को समझाया।
“मैं ठहरा एक तोता। मैं किसी पाठशाला में तो गया नहीं, मैं गणित क्या जानूं ?” तोते ने विनयपूर्वक उत्तर दिया और वहां से उड़ गया।
उड़ कर वह पास के एक मैदान में जा बैठा। वहां एक तितली बैठी थी। तोते ने तितली से पूछा, “प्यारी तितली, रंग-बिरंगी तितली, मेरे मन में कुछ संदेह पैदा हुआ है। उसका समाधान करोगी ?”
“हाँ, अवश्य !” तितली ने आत्म-विश्वासपूर्वक कहा।
तोते ने प्रश्न किया, “एक ईश्वर कैसे विभिन्न मंदिरों में, विभिन्न आकारों में, एक साथ रह सकता है ? भला कभी एक फल एक साथ, अनेक और कई प्रकार के फलों में परिणित हो सकता है ?”
तितली हंस कर बोली, “तोते हो न ! इसीलिए, तुम्हे फल के सिवा और कुछ नहीं सूझता !”
“हँसों मत, तितली सचमुच मेरे मन की शंका मुझे बुरी तरह से परेशान कर रही है। मेरी मदद करो। तुम बड़ी समझदार हो। तोते ने आग्रह और आतुरता दिखाई।
“तोते, ऊपर देखो, तुम्हे क्या दिखाई दे रहा है ?” तितली ने पूछा।
“सूरज अपने सम्पूर्ण तेज के साथ चमक रहा है।” तोते ने कहा।
“अब नीचे देखो। तुम्हे क्या दिखाई दे रहा है ?” तितली तोते से इस प्रकार पूछ रही थी जैसे कि वह किसी पाठशाला की अध्यापिका हो। तोते का विनम्र बर्ताव भी ऐसा था था जैसे कि वह एक छात्र हो। उसने नीचे की ओर देख कर कहा, “सूर्य का प्रकाश पत्तों के भीतर से ज़मीन पर छोटे-छोटे गोल-गोल चक्रों के रूप में दिखाई दे रहा है। “
“अच्छा, धूप के गोल-गोल आकर कहाँ से आये ?”
“सूर्य से।” तोते ने उत्तर दिया।

“देखो, मैं इन धुप-बिंदियों को गिनती हूँ।” तितली गिनने लगी। वह एक बिंदी पर बैठती, फिर दूसरी पर, फिर तीसरी पर और साथ-साथ गिनती भी जाती थी। उसने एक-सौ आठ तक गिनती गिनी।
“अब समझा, एक ही सूर्य पत्तों के भीतर से एक सौ आठ बन गया। ” तोते ने ख़ुशी के साथ कहा।
तितली बोली, “एक सौ आठ क्या, एक हज़ार आठ और उससे से भी अधिक, पेड़ में जितने पत्ते हों, उतने ही रूप ले सकता है। कितने भी मंदिर हों, कितने भी उपासक हों, भगवान् उतने ही बना लेता है। ” यह कह कर तितली वहां से उड़ गयी। तोता तितली की बुद्धि पर बहुत विस्मित हुआ। सोचने लगा कि यह कभी किसी को दुःख नहीं पहुंचती। फूलों से धीरे से शहद चूस कर हट जाती है। तभी तो इसकी ऐसी कुशाग्र बुद्धि है।
“मैं ही वो शहद हूँ, जिसे फल के भीतर से तितली चूसती है। वह मुझे ही पीती रहती है। इसीलिए इसमें तत्वज्ञान हो तो इसमें आश्चर्य की बात क्या बात है। मैं हूँ तो एक ही। किन्तु भक्तों के लिए अनेक और अनंत बन जाता हूँ। ” भगवान् कृष्ण ने भक्त शुक के कान में धीरे से कहा। तोते का संदेह मिट गया।
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