भगवान् के घर में
भगवान् के घर में
नार्वेजियन लेखक थूर ओगे बैरिंग्ज़वरेद
चर्च का सेवादार दानपात्र के पास बैठा ऊँघ रहा था।
आज बला की गर्मी थी। आज का पादरी नया होने के साथ-२ नवयुवक भी था जिसका स्वर उत्साह से परिपूर्ण था। कथा के बीच यदि कोई ध्यानमग्न अपनी अंधमुंदी आँखों से बैठ सकता था तो वह चर्च का सेवादार ही था। यही उस सेवादार की दिनचर्या थी।
आज की कथा अठाहरवें अध्ध्याय के बीसवें श्लोक पर आधारित थी जिसका सार था ‘जहाँ दो तीन मनुष्य भी सत्संग के नाम पर इक्कठे हो जाते है, वहीँ मेरा वास रहता है’।
इतने में चर्च का मुख्य द्वार चरमराया। सेवादार के माथे पर त्योरियां बनी। उसने सोचा अवश्य ही नाम रखवाने वाले लोग होंगे। परन्तु उसकी धारणा ग़लत निकली। वहां तो दरवाज़े के बीचों बीच एक ऊँचा लम्बा नीग्रो खड़ा था।
‘धत्त तेरे की’ सेवादार बोला, “देखते नहीं ये चर्च सफ़ेद लोगो के लिए है’।
उधर से कोई उत्तर न पा कर वह उदास सा उठा और आगे बढ़ा।
“तुम बाहर चले जाओ”, सेवादार ने बल दे कर कहा, “तुम..तुम… काले कलूटे … बाहर जाते हो कि नहीं ‘,
इस सब के बीच पादरी अपने प्रवचन में व्यस्त रहा। उसके वो बार बार ऊपर नीचे देखने से पता लगता था कि पादरी को स्तिथि का आभास हो गया था। पिछली पंक्ति में बैठे लोगों ने तो मुड़ कर देख भी लिया था।
पर नीग्रो पाषाण सा खड़ा रहा। उसने बिना आँख भय के चर्च के भीतर इधर उधर देखा। एक के बाद एक से टकराती हुई उसकी आँखें पादरी पर जा टिकी। चर्च में सन्नाटा छा गया।
सेवादार ने सबसे पहले झल्ला कर उसका गला दबोचा। और फिर चिल्लाया, “तुम … तुम… धूर्त नीग्रो … निकल जाओ यहाँ से। क्या तुम पढ़ नहीं सकते … ? बाहर लिखा बोर्ड तुम ने पढ़ा नहीं कि ये चर्च सफ़ेद लोगों के लिए है ?”
सेवादार ने उस अजनबी नीग्रो को कंधो से जा झंझोड़ा और उसे बाहर निकालना चाहा, पर वह अपनी जगह से टस से मस न हुआ।
चर्च के भीतर हलचल हुई। कुछ लोग अर्धावस्था में ऊपर उठे। इतने में पादरी ने आगुन्तक को सम्बोधित करते हुए कहा, “तुम बाहर चले जाओ” । तत्पश्चात पादरी ने अपनी आँखे नीचे फर्श पर झुका लीं और फिर बोला, “यह चर्च सफ़ेद लोगों के लिए है। किसी भी दुसरे रंग के इंसानो को इसमें आने की इजाज़त नहीं।”
“क्या तुम्हारा कोई अपना धर्म नहीं ?” भीतर बैठे लोगों में से किसी एक ने अपने तेज़ व तीखे स्वर में प्रश्न किया।
सेवादार ने नीग्रो को बाहर निकालने की एक नयी कोशिश की। पीछे वाले बेंच पर बैठे लोगों में से दो आदमी उसकी सहायता के लिए आगे बढ़े।
‘इसे पकड़ कर बाहर निकालो”, उधर से एक लड़की चिल्लाई, “देखिये ! ये हमें कैसे घूर रहा है “।
“हे भगवान् ! इसे बाहर निकालो। दिन प्रति दिन दशा बिगड़ती जा रही है,” एक वृद्धा बोली, “हमें तो भगवान् के घर में भी शांति नसीब नहीं।”
इतने में एक आदमी उस नीग्रो की ओर लपका और उसकी ठोड़ी पर घूँसा जमाते हुए बोला, “तुम्हारे जैसे लोग तो कार के पीछे बाँध कर घसीटने के लिए हैं।”
नीग्रो वैसा ही शांत खड़ा रहा।
फिर दूरों ने भी वैसा ही किया जैसा पहले ने किया था। चर्च में बैठे सभी लोग उठ खड़े हुए।
नीग्रो की गर्दन से खून की लकीर बह निकली, फिर भी उसके मुंह से एक भी शब्द न फूटा।
पादरी ने पुस्तक बंद करते हुए कहा, “हम सब भगवान् के घर में हैं।”
फिर रुकते हुए बोला, “हमें इसको पकड़ कर बाहर ले जाना चाहिए। हम कब तक इस प्रकार जारी रख सकते हैं।”
सेवादार ने दरवाज़ा खोला और अपने सहायकों की मदद से उसने नीग्रो को धकेल कर बाहर कर दिया। आस पास खड़े लोगों ने इस दृश्य को हैरानी से देखा।
चर्च की सीढ़ियों पर शीघ्र ही एक भीड़ जमा हो गयी।
“क्या बात है ?” लोगों ने पूछा।
जिन लोगों ने अभी तक उस पर हाथ नहीं उठाया था उन्होंने उस पर झपटते हुए उत्तर दिया की इस काले कूटे ने हमारे चर्च में उपद्रव किया है।
नीग्रो अभी भी खामोश रहा। आंसुओं से सूखी अपनी आँखों से बस ताकता ही रहा।
एक ने तो आगे बढ़ कर उसके मुंह पर थूकते हुए कहा ‘कि तुम सब फंदे के योग्य हो’।
भीड़ और भी समीप होती गयी।
कोई चिल्लाया, “हमें शुरू हो जाना चाहिए। इस पर लुक डाल कर इसे जला देना चाहिए। थू… गंद की ढेरी”।
इतने में पुलिस के एक सिपाही आ गया। गोलियों से भरे अपने पिस्तोल को लिए भीड़ को चीरते वह नीग्रो के पास आ पहुंचा और, उसे लगभग घसीटते हुए अपने गाड़ी के पास ले आया।
उसी शाम भगवान के घर में उपद्रव करने के दोष में एकपक्षीय निर्णय के अनुसार नीग्रो को फांसी की सजा सुना दी गयी।
फांसी देने वाले ने बाद में अपनी पत्नी को बताया कि कैसा इंसान था जो पूरी कार्यवाही में अपने पक्ष में एक भी शब्द नहीं बोला। वह हम सब को अपनी कुत्ते जैसी आँखों से बस देखता ही रहा।
वह इतना काला तो नहीं था। शायद वह वास्तविक नीग्रो नहीं था – शायद हरामी की औलाद। उसकी हथेलियों की रेखाओं को देखने से लगता था जैसे उनमे किसी ने कीलें गाड़ दी हों।
बेचारा।
नार्वेजियन से अनुवाद पूर्णिमा चावला
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