शंकरी ताई के हत्यारे…. संतराम बजाज

शंकरी ताई के हत्यारों में मेरा नाम भी शामिल है| मैं उस का फैमली डॉक्टर जो हूँ, इसलिए लोग मुझे भी उस की मौत का बराबर का हिस्सेदार समझते हैं, क्योंकि यह किसी एक का काम नहीं हो सकता|

हमारे मोहल्ले की सब से पुरानी, करीब ८०/८५ वर्ष की, एक किस्म की धरोहर ही तो थी, जो कल चली गयी|

मैं भी इसी मोहल्ले में बड़ा हुआ,डाक्टरी पास करने के बाद यहीं एक छोटा सा क्लिनिक खोल लिया| उस के बेटे मेरे साथ ही पढ़ते थे और मुझे वह अपने बेटों के बराबर ही समझती थीं| उस के दोनों बेटे विदेश में, एक अमेरिका, दूसरा ऑस्ट्रेलिया में बसे हुए थे|  

शंकरी ताई ने जब आख़िरी सांस ली,उस के पास अपना कोइ भी न था|वह अकेली रहती थी| उस के पति की करीब 15 वर्ष पहले दिल का दौरा पड़ने से अचानक मृत्यु हो गयी थी| वह स्कूल में टीचर थी और बाद में प्रिंसिपल बन अब रिटायरमेंट का जीवन बिता रही थी|

यह बात नहीं है कि उस के बेटे उस की खबर नहीं रखते थे, वे तो उसे अपने साथ रखना चाहते थे परन्तु शंकरी ताई अपना बुढापा ”˜à¤–़राब’ नहीं करना चाहती थी, वह अपने जान पहचान के लोगों में ही, अपने देश में ही रहना पसंद करती थी| बहुत कहने पर एक बार वह अपने बड़े बेटे के पास ऑस्ट्रेलिया गयी भी थी|परन्तु उस का जी नहीं लगा|और वह दो महीने बाद ही वापिस लौट आई| एक बार फिर छोटे बेटे की जिद्द पर अमेरिका भी गयी, पर वहां के तौर तरीके उसे जचे नहीं| उसकी बहू वहां नर्स थी और ज्यातातर रात की ड्यूटी करती और फिर दिन भर सोती थी|इसलिए घर में सारा दिन खामोशी का माहौल रहता था| यहां तक कि टॉयलेट को फ्लश करने पर भी उस की नींद डिस्टर्ब होती थी, टीवी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था| स्वभाव की तो वह बहुत अच्छी थी पर शंकरी ताई को यह घुटन रास नहीं आई और वह वहां से भी जल्द ही वापिस घर लौट आई|

दिल्ली ही में कुछ एक रिश्तेदार थे, एक भाई, एक भतीजा और एक मौसेरी बहन, परन्तु शंकरी ताई से उन की ज़्यादा नहीं पटती थी| अकेले में ही रहना उस ने सीख लिया था| वैसे तो अपने सारे काम वह स्वयं ही करना पसंद करती थी और कर सकती थी,परन्तु बच्चों के अनुरोध पर उस ने दो ”˜à¤¹à¥‰à¤‰à¤¸ हैल्पर’ रख लिए थे|

एक नेपाली नौकर ”˜à¤›à¥‹à¤Ÿà¥‚’ और दूसरी बंगलादेशी मेड ”˜à¤•à¤®à¤²à¤¾’- उस के साथी थे| छोटू खाना बनाने में माहिर था, कपड़े धोना और बाज़ार से साग सब्जी लाना उस का काम और ऐसे ही मेड भी घर की सफाई, बर्तन आदि धोने के इलावा उस की दवा दारू लाने की ड्यूटी निभाती थी|

शंकरी ताई एक रिटायर्ड टीचर थी और उस में अभी भी वह टीचरों वाली काफी आदतें थें| हर एक की गलतियां निकालना, बच्चों को टोकते रहना और गली में कौन आता है, कौन जाता है, उन सब का ”˜à¤¹à¤¾à¤œà¤¿à¤°à¥€ रजिस्टर’ उस के दिमाग में रहता था |

“ए शान्ति! तू अब बच्ची नहीं रही, बंद कर लड़कों के साथ खेलना| घर के काम काज में माँ का हाथ बटाया कर|”

“ओ लम्बू, क्रिकेट खेलना है तो साथ वाले मैदान में जा के खेल| यहाँ खिडकियों के शीशे तू तोड़ेगा और मुसीबत तेरे बाप को उठानी पड़ेगी|”

“दूंगी कान के नीचे दो झापड़ कालिए! क्या ऐसे कोई अपनी माँ से बात करता है|”

वैसे सब के साथ बड़े प्रेम से रहती थी, इसलिए उस की बातों का कोई बुरा भी नहीं मानता था|

खर्चा करने में काफी ”˜à¤²à¥€à¤šà¤¡à¤¼’ यानी कंजूस मानी जाती थी|सब्जी बेचने वालों से काफी ”˜à¤šà¤¿à¤• चिक’ करती थी|, “राम स्वरूप, पिछली बार तू जो भिन्डी दे कर गया था,सब पक्की थी|इस बार पैसे काट लूंगी| और अच्छा, जरा दो तीन हरी मिर्ची और डाल देना,छोटू को अच्छी लगती हैं|” और जवाब में रामस्वरूप सब्जीवाला हंस देता, “आप की जैसी मर्जी ताई जी| मैं तो आप को खराब चीज़ दे ही नहीं सकता| मोहल्ले में एंट्री बंद करवानी है क्या मैं ने? इस बार आप की पसंद की स्पेशल खुम्बी भी लाया हूँ|”

वास्तव में शंकरी ताई ऐसी नहीं थी| बल्कि वह तो हमेशा ज़रूरतमंद या गरीब लोगों की सहायता करती रहती थी|चंदू धोबी, जो गली की नुक्कड़ पर कपडे भी प्रेस करता है, उस से अक्सर उस के धंधे के बारे में पूछती रहती थी|

“क्या बतायें ताई जी, जब से ये बाबू लोग पैंट की बजाये जीन पहनने लगे हैं, धुलाई और प्रेस का काम काफी मंदा हो गया है|”

शंकरी ताई चंदू के बच्चों को तह्वारों पर नए कपड़े बनवा दिया करती, स्कूल की कापी किताबों खरीदने में भी कुछ मदद कर देती थीं| और ये वह कई और ज़रूरतमंद बच्चों के लिए भी करती रहती थी परन्तु किसी दुसरे को कानो कान खबर तक नहीं होती थी| यहाँ तक जिन के लिए करती थी उन्हें बिलकुल मना कर देती थी किसी और को बताने को|

महीने में एक बार वह छोटू को साथ ले बैंक जाकर अपने पेंशन अकाउंट से कुछ रकम निकाल कर मिठाईयां और कपड़े खरीद कर करीब की झुग्गी झौंपडी के बच्चों में बांटती थी| ये वह अपने स्वर्गीय पति की याद में करती थी|

ज़िंदगी ठीक चल रही थी, लेकिन आयु के साथ जुडी हुई कुछ बीमारियाँ और समस्याएँ भी अपना रंग दिखा रही थीं| घुटनों में तकलीफ के कारण अब ज़्यादा घूम फिर नहीं सकती थी, घर के बरामदे में कुर्सी पर बैठ कर सब की ख़बर लेती रहती थी| फिर कुछ नाम भूलने लगी, कुछ चेहरे पहचाने नहीं जा रहे थे| वैसे ही बुड्बड़ाती रहती|

सब कुछ तो ठीक चल रहा था कि दुनिया भर में कोविड-19 महामारी का अटैक हो गया|शुरू शुरू में तो इतना असर नहीं दिखा पर लॉक डाउन, फेस्मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से घबराहट होने लगी, लोग घरों से बाहर निकलने से डरने लगे| उधर सरकार की ओर से भी सख्ती होने लगी| स्कूल बंद, दफ्तर बंद | शंकरी ताई भी कमरे के अंदर ही बंद सी हो गयी|

ऐसी चिंताजनक हालत को देख, मेरे सुझाव पर शंकरी ताई के बेटों ने एक फुल टाइम नर्स का प्रबंध कर दिया| यह नर्स उन की देखभाल करती और रात को भी वही साथ वाले कमरे में सोती | बंगलादेशी मेड भी कुछ ज़्यादा समय उन के साथ बिताने लगी| मैं भी हर दुसरे दिन खबर ले लेता और नर्स से पूछ ताछ करता रहता| मोहल्ले वाले भी उस की देखभाल करते थे, परन्तु कोरोना के डर से आना जाना बहुत कम हो गया था|

शंकरी ताई का एक बेटा आया भी, पर ज़्यादा दिन नहीं रुका क्योंकि जहाजी उड़ानें बंद होने जा रही थीं| शंकरी ताई का टेस्ट नेगेटिव निकला तो चिंता की कोई बात नहीं थी| कोरोना कुछ कम होता दिखाई दे रहा था, पर अचानक से दूसरी ”˜à¤µà¥‡à¤µ’ ने अटैक कर दिया| दूसरी लहर ने तो सब को ऐसे पकड़ा कि सब बेबस हो गये| चारों ओर हाहाकार मच गया| अस्पतालों में बैड नहीं मिल रहे, ऑक्सीजन की कमी है, वेंटीलेटर नहीं हैं| लोग अस्पतालों के बाहर मरने लगे| पैसे वाले भी एक अस्प्ताल से दूसरे अस्पताल के चक्करों में एम्बुलेंसों में घूमने लगे|

छोटू अपने परिवार को देखने नेपाल चला गया, कमला भी एक दिन छोड़ कर काम पर आने लगी|

शंकरी ताई की तबीयत भी कुछ बिगड़ने लगी| फिर कोविड टेस्ट करवाया गया| और जिस बात का डर था, वही हुआ,शंकरी ताई भी कोरोना पॉजिटिव हो गयी| कैसे? वह तो कहीं आती जाती भी नहीं थी|

शायद नर्स से या कमला से? पर नर्स तो सवस्थ है और वह तो हर तरह से ट्रेन्ड है और सफाई का ख़ास ख्याल रखती है| मुंह पर मास्क पहन कर काम करती है|

कमला पर शक की सूई रुकी, जो दो दिन से काम पर भी नहीं आई थी| पता चला की कमला को भी कोरोना पॉजिटिव पाया गया है| मोहल्ले वाले भी घबरा कर कन्नी कतराने लगे| जो उन के कुछ रिश्तेदार थे वे भी नज़र नहीं आ रहे थे|

कई अस्पतालों में फोन किये, कहीं भी बात नहीं बन रही थी| बैड नहीं मिल रहा था, और कहीं मिला तो ऑक्सीजन नहीं थी| मैं खुद भी डर रहा था और बाकी के मरीजों की देखभाल की जिम्मेवारी भी थी मुझ पर|

सौभाग्य से पड़ोस वाले प्राइवेट अस्पताल में एक बैड मिल गया|

शंकरी ताई को अपनी छोड़ कमला की ज़्यादा चिंता हो गयी| उस ने मुझ से आग्रह किया कि मैं कमला के लिए भी अस्पताल में बैड का प्रबंध करूं और उस की दवा दारू का पूरी तरह से इंतजाम करूं|  à¤‰à¤¨ का कहना था कि कमला के छोटे छोटे बच्चे हैं, मेरा क्या, मैं ने अपनी ज़िन्दगी भरपूर जी ली है|  

मैं ने बहुत कोशिश की कि कमला को अस्पताल में बैड मिल जाए परन्तु सफलता नहीं मिली| हाँ दवा दारू का पूरा बंदोबस्त किया उस के लिए|

शंकरी ताई के दोनों बेटों में से एक भी नहीं आ सकता था, क्यों कि जहाज़ों के आने जाने पर काफी रोक लगी हुई थी| उन्होंने oxygen concentrators का बंदोबस्त करने की भी कोशिश की, परन्तु डिलीवरी की समस्या थी|

बस अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सों के सहारे पर थी वह| मुझे भी जाने की इजाज़त नहीं थी|

कमला तो बच गयी परन्तु शंकरी ताई नहीं बच पाई|

उस अस्पताल में आधे घंटे की ऑक्सीजन बची थी| मरीजों के परिजनों को बाहर से ऑक्सीजन सिलिंडर लाने को कहा गया, जो चोर बाज़ार से कई गुना कीमत देकर ही मिल पा रहे थे| परन्तु बहुत देर हो चुकी थी|

अस्पताल में नई सप्लाई दो घंटे बाद आई और इस बीच में वहां के 6 मरीजों की मौत हो गयी, जिस में एक शंकरी ताई भी थी|

क्या उसे बचाया जा सकता था? क्या यह कुदरती मौत थी या इसे ह्त्या कहा जाए?

यदि ह्त्या थी तो किस किस को दोषी माना जाए?

उसके बेटों को, रिश्तेदारों को, पड़ोसियों और समाज को, घर में काम करने वालों को, उन चोरबाजारी करने वालों को, डॉक्टरों को, अस्पताल और सरकार को या कोरोना को?  

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