कहानी कान की, करे कोई भरे कोई! … संतराम बजाज

आप में से शायद ही कोई होगा जिस के बचपन में कान नहीं खिचे या बड़े होने पर दूसरों के कान खींचने का मौका नहीं मिला| घर में हों या स्कूल में, छोटी मोटी शरारतों पर अक्सर कान पकड़ कर एक हल्का सा मरोड़ा दिया जाता था या फिर आप को ही अपने दोनों कान अपने हाथों से पकड़ कर माफी मांगने के लिए कहा जाता था| दोनों कान पकड़, उठक बैठक कराई जाती थी| जरा बड़ा अपराध हो तो मुर्गा बन कर दोनों कान पकड़वाये जाते थे| यह सब से बड़ा कठिन होता था, जो अक्सर सकूलों में या पुलिस स्टेशनों में अपराधियों को सज़ा के तौर पर प्रयोग किया जाता था|

ऐसी सज़ा स्कूलों और गुरुकुलों में आम थी और लोग इसे बिना प्रोटेस्ट के अनुशासन का एक हिस्सा समझते थे| परन्तु आजकल इस का इस्तेमाल बहुत कम हो गया है| बल्कि बंद ही हो गया है| ऐसा शारीरिक दण्ड, निर्दयता और बेदर्दी की निशानी है| इस से बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ता है|

हाँ भारत के कुछ हिस्सों में, करोना के नियम पालन न करने वालों को पुलिस ने कुछ ऐसे ‘उठक बैठक’ ज़रूर करवाई है|  

अब देखा जाए तो भगवान् ने कान इस मतलब के लिए तो नहीं बनाए थे कि उन्हें पकड़ कर चाहे जैसे मरोड़ो,दबाओ|      

उस ने तो जो भी अंग बनाये, उन की ख़ास ड्यूटी है, जिसे वे निभाते हैं; एक भी गड़बड़ी करे तो सारे सिस्टम में खराबी आ जायेगी, और हमारा जीना ही मुश्किल हो जाएगा|

अब यदि कान की बात जाए तो,  भगवान् ने एक नहीं दो दिए हैं ताकि चारों और से सुन सकें| इधर उधर की सुनते हैं और दिमाग तक पहुंचाते हैं, अर्थात ये दिमाग का ऐन्टेना (antenna) हैं| तरह तरह की धव्नी को पहचानने मे भी मदद करते हैं|

वैसे सुनने के अतिरिक्त एक और बहुत ही मह्त्त्पूर्त्न भूमिका निभाते हैं कान-हर जीव के शरीर को संतुलित बनाये रखते हैं|

दिमाग को कानों के द्वारा जो सुनने को मिलता है, उसी प्रकार से वह आगे काम करता है|

कान दिल और दिमाग की तरह हर समय काम करते रहते हैं, यहाँ तक कि रात को भी जब आँख बंद होती है, हाथ और पाँव आराम कर रहे होते हैं, कान अचानक सी आहट पर भी उठ खड़े होते हैं|

कहते हैं, जब बच्चा माँ के पेट में होता है, उस की पोजीशन बिलकुल कान की तरह होती है| 

चलिए, यहाँ तक तो था कि कानों को एनिक लगाने के लिए इस्तेमाल में ले जाया जाए, क्योंकि इस से ये शरीर के दूसरे अंग-आँख की सहायता कर रहे हैं| इस बात का भी बुरा नहीं मनाते कि इन में छेद कर औरतें बालियाँ, झुमके आदि लटका सकें, हालांकि इस में भी कुछ इलाकों, जैसे राजस्थान या नागालैंड की औरतें तो पूरे कान को छेद कर बालियों से भर देती हैं कि बेचारे कान तो पीड़ा से तिलमिला उठते हैं, परन्तु फिर भी चुप रहते हैं क्योंकि ऐसा करने से उन महिलाओं की ख़ूबसूरती बढ़ती है, सारे शरीर का मान बढ़ता है|

परन्तु यह कहाँ तक ठीक है कि हर एक गलत काम करने वाले अंग की सज़ा कान को भुगतनी पड़े? जैसे पहले कह चुके हैं, स्कूलों में अध्यापक लोग बच्चों को प्रश्नों का ठीक उत्तर न देने पर या शरारत करने पर कान की खिंचाई करते हैं या कान के नीचे जोर का झापड़| कनपट्टी पर जो जोर का हाथ पड़े तो उस की गूंज् और सनसनाहट तो सारे शरीर को हिला कर रख देती है तो किस कसूर के लिए?

 कहने का मतलब है कि दूसरे अंगों की गलतियों की सज़ा बेचारे कानों को क्यों दी जाती है?

वैसे तो, इंसान के दिमाग में जब शैतान घुस जाए तो कई दूसरे अंगों का भी यही हाल होता है| मास्टर के डंडे हाथों पर या पिछवाड़े पर, गालों पे थप्पड़ आम तौर पर ज़बान की या हाथों और लातों की गलती के कारण भी होते हैं|

कानों की शिकायत तो पूरी तरह से जाईज़ है कि, “करे कोई और भरे कोई, चोरी हाथ करें, सज़ा कान को, झूठ ज़बान, सज़ा कान को या फिर ‘आँख मटक्का’ आँखें करें और सज़ा सब से पहले कान को| यहाँ यह बात तो माननी पड़ेगी कि ‘आँख मटक्का’ से कई बार अच्छे और मीठे शब्द भी सुनने को मिलते हैं कि कानों में ‘रस घुल’ जाता है|

शायद ‘आँख मटक्का’ के नाम पर आप के कान भी ‘खड़े’ हो गये होंगे, परन्तु मैं खाह्मखाह कानों की बातें सुना कर आप के ‘कान खा’ नहीं रहा हूँ| अब यह आप पर निर्भर है कि आप मेरी बात ‘कान लगा कर’ सुनते हैं या फिर ‘एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं’| हालांकि  कान केवल सुनने का काम करते हैं, निकालने का नहीं|

पिछले दो वर्षों से जब से करोना का आतंक फैला हुआ है, कानों का काम बहुत बढ़ गया है| मुंह और नाक द्वारा घुसने वाले वायरस को रोकने के लिए हर समय मास्क ‘mask’- पहनने पड़ते हैं, जिन्हें बाँधने के लिए फिर कान ही काम आते हैं| पहनने वाला भूल जाए तो सज़ा में भारत में पुलिस (ख़ास तौर पर पंजाब पुलिस) सड़क पर रोक कर उन से कान पकड़ कर उठक बैठक कराती है, यानी मुसीबत फिर कानों की|

हमारे जीवन में कानों के महत्त्व का पता तो जीवन के आख़री पलों में चलता है, जब दूसरे अंगों की तरह कान भी ढीले पड़ जाते है और ‘ऊंचा सुनते’ हैं और जब पत्नी की झाड़ पड़ती है, “क्या बहरे हो गये हो, जवाब क्यों नहीं देते | मैं कब से बोले जा रही हूँ, क्यों तुम्हारे कानो पर जूं नहीं रेंगती”| यदि यह भी नहीं सुन पाए तो फिर तो भगवान् ही आप को बचाए| सारे मोहल्ले में आप की बात सुनाई जा रही है, आप तो कहेंगे ही,“जरा आहिस्ता बोलिए, दीवारों के भी कान होते हैं|”                                  

आजकल एक बात कानों के बारे में अच्छी भी निकली है कि कान पकड़ना सज़ा की निशानी नहीं है, बल्कि याददाश्त बढाने का एक योगासन है| Acupuncture के कुछ ख़ास पॉइंट्स को दबाने से दिमाग हरकत में आ जाता और भूली हुई बातें याद कर लेता है|

यह बात स्वामी रामदेव ने नहीं कही बल्कि अमेरिका में बैठे किसी योगा कराने वाले विशेषज्ञ ने कही है|   

शुक्र है भगवन का, कि कुछ तो ढंग की बात सुनने को मिली!  

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