गूगल पे गुस्सा क्यों? … संतराम बजाज
मुझे गूगल पर बहुत गुस्स्सा आता है आजकल| आप पूछेंगे क्यों भाई?
बात समझने के लिए, जरा आप को थोड़ा धीरज से बैठना होगा और बिना टोके, मेरी बात ध्यान से, कान लगा कर सुननी होगी|
हम जब बच्चे होते थे, हाँ भई सच है, हम भी कभी बच्चे थे| उस समय गूगल नाम की चीज़ तो क्या कंप्यूटर तक का नामोनिशान नहीं था| हर घर में एक दादी या नानी होती थी जो हर रात बच्चों को परियों और शहज़ादियों की कहानी सुनाया करती थी| उस कहानी में एक आदमखोर जिन्न ज़रूर होता था, वह शहजादी को अपने किले में क़ैदी बना कर रखता था| राजा बहुत परेशान और दुखी| जिन्न को प्रतिदिन गाँव वाले लोग एक व्यक्ति के हाथ एक बैलगाड़ी में खाना भर कर भेजते थे| कई बार वह जिन्न ज़्यादा गुस्से में हो या ज़्यादा भूखा होता तो, वह बैल मार कर खा जाता, यहां तक कि उस भोजन ले जाने वाले बन्दे को भी खा जाता था| जब दादी/नानी थोड़ा रुक जाती, सस्पेंस बनाने के लिए बच्चे डर से चिपके रहते | बीच बीच में बच्चों को ‘हंगूरा’ (हुंकारा) भरना पड़ता था ताकि पता लगे कि वे सुन रहे हैं और सो तो नहीं गये| या “फिर क्या हुआ?” की आवाज़ निकालें |
“मजल-दर मजल, कूच-दर कूच, भाई रे, चलिया होया जा रेहा था कि…..” कथावाचक ऐसी लच्छेदार भाषा में बोलती थी कि सब बच्चे बड़ी उत्सुकता के साथ पूरे ध्यान के साथ सुनते थे| फिर कहानी चालू रहती थी|
कुछ् सवाल भी पूछे जाते|
अंत में ‘हैपी एंडिंग’ के साथ कहानी समाप्त हो जाती|
दूसरे दिन कहानी थोड़ी सी अलग होती पर उतनी ही रोचक| चिड़िया जो शहजादी (राजकुमारी) की बैलगाड़ी के नीचे आकर ज़ख़्मी हो जाती है और शहजादी उसे बचाने के लिए बड़े यत्न करती है| पानी के लिए नदी के पास जाती है, वह उसे घड़ा लाने को कहती, वह कुम्हार के पास जाती है, जिस के पास कोई घड़ा नहीं है परन्तु यदि उसे मिट्टी ला दी जाए तो वह नया घड़ा बनाने को तैयार है| अब मिट्टी को खोदने के लिए फावड़े की ज़रुरत है जो केवल लोहार से मिल सकता है, परन्तु लुहार की भट्टी में आग समाप्त है, यदि शहजादी कहीं से आग ला दे तो वह फावड़ा बना सकता है| कहानी रोचक होती जाती है, परन्तु कोई बच्चा यह नहीं पूछता कि इतनी देर में चिडया, जिस का नाम ‘भाग भरी’ है, मर तो नहीं जायेगी| आर्थात चिडया बैकग्राउंड में चली जाती है और सब का ध्यान इस बात पर इकत्रित हो जाता ही कि आगे क्या होगा| शहजादी आग कहाँ से लायेगी, या आग के बाद किसी और जगह जाना होगा| नानी/दादी यानी हमारी कथावाचक फिर वही ‘मजल-दर मजाल,कूच-दर कूच, भाई रे- चालिया होया जा रेहा था…
आग एक भयानक जिन्न के कब्ज़े में होती है और वह आग देने से मना कर देता है, उसे बली चाहिए|
बेचारी शहजादी दुखी होती है कि “जिन्न आग देगा नहीं, लुहार फावड़ा बनाएगा नहीं, धरती मिट्टी देगी नहीं, कुम्हार घड़ा बनायेगा नहीं, नदी से पानी आयेगा नहीं, मेरी ‘भाग भरी’ कैसे जेयेगी?…
…कहानी लम्बी होती जाती है, कुछ बच्चे सो जाते और कुछ जाग कर परिणाम का इंतज़ार|
वैसे तो आप भी शायद बोर हो कर सोने लगे हों, खैर मैं शोर्टकट में बता दूं कि कहीं से एक राजकुमार आ जाता है और वह जिन्न के साथ युध्द कर उसे मार गिराता है और बाकी की कहानी आप समझ ही गये होंगे,.. हैपी एंडिंग..|
अब हमारा झगड़ा गूगल से यह है कि अब जब हम बुज़ुर्ग बनने लगे तो हम ने बड़े प्लान बनाये कि हम अपने पोते पोतियों, दोहते दोह्तियों को जिन्न भूतों की कहानिया सुनायेंगे|
लेकिन गूगल ने सब ‘गुड़ गोबर’ कर दिया है, हमारी स्कीमों पर पानी फेर दिया| हमारा स्टैट्स बड़ा लो हो गया है| हम से कोई भी कहानी सुनाने को नहीं कहता| हमें inferiority complex (दीन भाव) होने लगा है, जब देखते हैं कि एक एक साल के बच्चे लैप टॉप के बटनों को बड़ी आसानी से दबा रहे हैं|
ऐसा महसूस होता कि आजकल बुजुर्गों की कोई ज़रुरत ही नहीं रही| वह शरीर में ‘अपेंडिक्स’ की तरह हैं, जिन का कोई रोल नहीं पर तकलीफ ज़रूर देते हैं|
सच कहें तो शायद गूगल पर हमारा गुस्सा जायज़ नहीं है|
दादी, नानी तो नहीं बता सकती थीं कि सूर्य की धरती से दूरी (15 करोड़ किलोमीटर) 150, 000000 KM है और सूर्य की किरन 3 लाख किलोमीटर प्रीत सेकिंड की गति से 8 मिनट में धरती पर पहुँचती है| वे तो केवल यह कह कर कि ‘पलक झपकते ही नारद जी एक लोक से दुसरे में पहुँच जाते थे, या फिर चाँद पर एक सफेद बालों वाली बुढ़िया रहती है जो चरखा कातती है| अब हम भी यदि ये बताएँगे तो बच्चे हम पर हंसेगे ना|
मतलब यह कि यह ’एक तरफ़ा’ डिग्री ठीक नहीं है|
बल्कि अब तो हालत यह है कि हमें ही बहुत सारी जानकारी गूगल से मिलती है|
“बेटा, जरा गूगल से आज का मौसम तो पता करो, क्योंकि सैर पे निकलना है|”
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